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Muslman our Madrasha

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  आ ज से सौ डेढ़ सौ साल पहले हिन्दी कौमन ज़ुबान नही थी। अच्छी सरकारी नौकरी के लिए अंग्रेज़ी ज़ुबान का होना ज़रुरी होता था, पर अंग्रेज़ी पढ़ाए कौन ? 1880 के बाद तो आम लोगों के लिए स्कुल खुलना ही शुरु हुआ था। इस लिए लोग छोटी मोटी नौकरी, हिकमत, मुंशीगिरी, और शेर ओ शायरी करने के लिए उर्दु फ़ारसी ज़ुबान ही पढ़ते थे; यही कौमन ज़ुबान थी। हिन्दी की जगह लोकल ज़ुबान युज़ की जाती थी, जैसे बिहार में "कैथी" ज़ुबान (लिपि) बहुत कौमन थी, पर ये लोकल ज़ुबान नौकरी नही दे सकती थी। 1917 में चम्पारण सत्याग्रह के नायक रहे राजकुमार शुक्ल को हिन्दी अच्छे से नही आती थी, वो कैथी ज़ुबान (लिपि) मे लिखते थे। उनकी पुरी डायरी कैथी ज़ुबान मे ही है। वहीं 1857 के नायक बाबु कुंवर सिंह भी जो ख़त अपने क्रांतिकारी साथियों को लिखते थे; वो कैथी ज़ुबान (लिपि) मे ही होती थी। अब आते हैं असली मुद्दे पर की लोग अब लोग मदरसा पढ़ने क्युं नही जाते हैं ?  पहले लोगों के पास पढ़ने का साधन नही होता था और मदरसे में जुमेराती (कुछ पैसा और आनाज) ले कर मौलवी साहेब उर्दु फ़ारसी ज़ुबान पढ़ा देते थे। उस समय उर्दु फ़ारसी वो ज़ुबान थी, जो...